छब्बीस तारीख को में आई थी,
बंध आंखो के साथ, लिपटी हुई चादर में
सोई थी।
कुछ भी नहीं पता था कि
क्या हो रहा है।
लेकिन,
बहुत ज़ोर से कुछ गिर रहा था
मेरी मां और सभी लोग गभरा रहे थे,
लेकिन में हस रही थी।
क्योंकि मुझे गभरना नही आता।
कई लोग मेरे सामने थे,
तो कुछ किसकी याद में।
कला धुआं चारो और
आसमान को जकड़े हुए
कई देर तक खड़ा था और
हील भी रहा था।
फिर पता नही कब चला गया!
नीचे धरती पर इंसान दौड़ रहे थे,
और बारी-बारी सांस ले रहे थे।
बड़ी इमारतें जल रही थी,
तो कही पे पैसों की इमारतें
बेवजह गिर रही थी।
पीला रंग उड़ने लगा।
बड़ा सा टेन्क
गाड़ी कुचलकर जा रहा था।
फिर कुछ दिनों के बाद,
जब में मां के आंचलमे खेल रही थी,
तब कई खून से लथपथ इंसान आने लगे,
अभी तक मुझे गभराना नही आया।
उन लोगोंने एक ही जैसे कपड़े पहने हुए थे,
मेरी नज़र ही नहीं हटी।
मेरी माने मुजपे कपड़ा रख दिया,
ताकी में उन लोगों को देख ना सकूं।
मेने कोशिश की कपड़ा उठाने की,
लेकिन मां ने मुझे रोका।
फिर,
एक खूबसूरत लड़की ने
बंदूक उठा ली ऐसा सुना।
में भी खूबसूरत हूं, क्या
मुझे भी बंदूक उठानी होंगी?
मेने ऐसा सुना था मेरे मा- पापा से
की में बड़ी होकर डॉक्टर बनूगी।
लेकिन यहां तो कुछ और ही है!
बंदूक लूं या स्टेथोस्कोप ?
~ Divya Sheta.
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