बिखरा हुआ कोई...


 



एक मासूम सीं रात थीं।

और एक पागल सा चाँद था

फ़िर एक चाँदनी आई

तो रात बिखर क़े सुबह हों गई!

फिर दिन चढ़ा और चांद बिखर गया!


चांद अपने गम को गम रख कर

ढल गया।


दिन में कई सपने सजाके शाम तैयार हुई

और शाम आई।

शाम बेचैन होके बैठी थी

की कब मेरा चांद आए

और मुजे अपने साथ ले जाए।


लेकिन वही रात फिरसे आयी

और अब,शाम बिखर गई।

रात तैयार हुई

अपने साथ कई सपने लेकर

की कब मेरा चांद आए

और मुजे ले जाए।


वहीं चांदनी आयी 

और रात फिरसे बिखर गई।

चांद का गम, गम ना रहकर

अब चांदनी के साथ नई दिन की 

शुरुआत कर रहा था।


रात बिखर कर सुबह हो गई।

सुबह कुछ सपने सजाए हुए थी

की शाम हो गई।

फिर एक दिन बिखरा था....


- दिव्या शेटा।



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